वांछित मन्त्र चुनें

यदि॑न्द्र॒ सर्गे॒ अर्व॑तश्चो॒दया॑से महाध॒ने। अ॒स॒म॒ने अध्व॑नि वृजि॒ने प॒थि श्ये॒नाँइ॑व श्रवस्य॒तः ॥१३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad indra sarge arvataś codayāse mahādhane | asamane adhvani vṛjine pathi śyenām̐ iva śravasyataḥ ||

पद पाठ

यत्। इ॒न्द्र॒। सर्गे॑। अर्व॑तः। चो॒दया॑से। म॒हा॒ऽध॒ने। अ॒स॒म॒ने। अध्व॑नि। वृ॒जि॒ने। प॒थि। श्ये॒नान्ऽइ॑व। श्र॒व॒स्य॒तः ॥१३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:46» मन्त्र:13 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:29» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:13


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे गमनादिक करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) वीर शत्रुओं के नाश करनेवाले (यत्) जहाँ (सर्गे) मिलने योग्य (महाधने) बड़े धन जिससे उस और (असमने) नहीं विद्यमान सङ्ग्राम जिसमें ऐसे (वृजिने) बलकारक (अध्वनि) मार्ग में और (पथि) आकाशमार्ग में (श्येनाविव) बाजों को जैसे वैसे (श्रवस्यतः) सुख की इच्छा करते हुए (अर्वतः) घोड़े आदि को (चोदयासे) प्रेरणा करिये, वहाँ आपका दूर भी स्थित स्थान निकट सा होवे ॥१३॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! युद्ध के विना भी जब जब कार्य्य के लिये गमन आप करें तब तब शीघ्र ही जाना चाहिये और शिथिलता पैरों से वा वाहन से जाने में नहीं करनी चाहिये ॥१३॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं गमनादिकं कार्य्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यद्यत्र सर्गे महाधनेऽसमने वृजिनेऽध्वनि पथि श्येनानिव श्रवस्यतोऽर्वतश्व चोदयासे तत्र ते दूरस्थमपि स्थानं निकटमिव स्यात् ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यस्मिन् (इन्द्र) वीरशत्रुविदारक (सर्गे) संस्रष्टुमर्हे (अर्वतः) अश्वादीन् (चोदयासे) चोदय (महाधने) महान्ति धनानि यस्मात् तस्मिन् (असमने) अविद्यमानं समनं सङ्ग्रामो यस्मिँस्तस्मिन् (अध्वनि) मार्गे (वृजिने) बले (पथि) (श्येनानिव) (श्रवस्यतः) आत्मनः श्रव इच्छतः ॥१३॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! युद्धमन्तरापि यदा यदा कार्यार्थं गमनं भवान् कुर्य्यात्तदा तदा सद्य एव गन्तव्यं, शैथिल्यं पद्भ्यां यानेन वा गमने नैव कार्यम् ॥१३॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! युद्धाशिवायही जेव्हा कार्य करण्यासाठी तू जाशील तेव्हा ताबडतोब जा. पायी किंवा वाहनाने जा, त्यात शिथिलता करू नकोस. ॥ १३ ।